महाराजा जनक के गुरु अष्टावक्र जी: एक सम्पूर्ण प्रस्तुति

महाराजा जनक के गुरु अष्टावक्र जी: एक सम्पूर्ण प्रस्तुति

अष्टावक्र, जिन्हें आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े शरीर के कारण यह नाम मिला, भारतीय दर्शनशास्त्र के महानतम ऋषियों में से एक माने जाते हैं। उनके जीवन का हर एक पहलू अद्वितीय और प्रेरणादायक है। शारीरिक रूप से विकृत होने के बावजूद उनकी बुद्धि और आत्मज्ञान विलक्षण था, जो उन्हें दूसरों से अलग बनाता था। वेद, उपनिषद और योग के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान उनके जीवन और शिक्षा से प्राप्त होता है।

उनके पिता कहोड़ ऋषि थे, जो वेदों के ज्ञाता थे और अपनी पत्नी सुजाता के साथ आचार्य उछालक के आश्रम में रहते थे। यह वहीं स्थान था जहाँ से अष्टावक्र के जीवन की शुरुआत होती है और यहीं से उनके असाधारण जीवन की कहानी की नींव रखी गई।

अष्टावक्र का जन्म और पिता का शाप

अष्टावक्र के जीवन का आरंभ एक अत्यंत रोचक और अनोखी घटना से होता है। उनकी माँ सुजाता गर्भवती थीं, और गर्भ में ही अष्टावक्र ने वेदों के ज्ञान को आत्मसात कर लिया। एक रात जब उनके पिता कहोड़ वेदों का पाठ कर रहे थे, तो गर्भ में ही बालक अष्टावक्र ने उन्हें टोकते हुए कहा, “पिताजी, आप वेदों का उच्चारण शुद्ध नहीं कर रहे हैं।” यह सुनकर कहोड़ ऋषि को बहुत क्रोध आया। वे अपने गर्भस्थ पुत्र की इतनी ज्ञानयुक्त बातों से अपमानित महसूस करने लगे और गुस्से में उन्होंने अष्टावक्र को शाप दे दिया: “तुम आठ स्थानों से विकृत होकर जन्म लोगे।”

यह शाप ही अष्टावक्र के विकृत शरीर का कारण बना, परंतु इसका उनके ज्ञान पर कोई असर नहीं पड़ा। शरीर से विकृत होकर भी अष्टावक्र ने अपने अद्वितीय ज्ञान और विद्वत्ता से सभी को चकित कर दिया।

अष्टावक्र का ज्ञान और महर्षि उछालक का आश्रम

अष्टावक्र के जन्म से पहले ही उनके पिता कहोड़ राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ करने के लिए गए थे। वहाँ वे पराजित हुए और विजेता पंडित वंदिन ने उन्हें पानी में डुबवाकर मरवा दिया। इस घटना की जानकारी अष्टावक्र को उनके बड़े होने तक नहीं थी। वे अपने नाना उछालक के आश्रम में पले-बढ़े और वहीं पर उन्होंने अपना शैक्षिक जीवन शुरू किया। यहीं उन्होंने वैदिक ज्ञान को गहराई से आत्मसात किया और अपने नाना को अपना पिता समझते रहे।

पिता की मृत्यु की सच्चाई का पता चलना

12 वर्ष की आयु तक अष्टावक्र अपने पिता कहोड़ के बारे में कुछ नहीं जानते थे। एक दिन अचानक उन्हें अपनी माँ सुजाता से यह ज्ञात हुआ कि उनके वास्तविक पिता की मृत्यु राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के बाद हुई थी। यह सत्य जानने के बाद अष्टावक्र का हृदय क्रोध और पीड़ा से भर गया। उन्होंने अपनी माँ से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की अनुमति माँगी। सुजाता ने उन्हें समझाने की कोशिश की, परंतु अष्टावक्र दृढ़ संकल्प के साथ जनक के दरबार की ओर प्रस्थान कर गए।

राजा जनक के दरबार में प्रवेश

जब अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ राजा जनक के दरबार पहुँचे, तो वहाँ यज्ञ चल रहा था और देश भर के विद्वान इकट्ठे थे। परंतु अष्टावक्र का दरबार में प्रवेश आसान नहीं था। द्वारपाल ने उनके बालक होने के कारण प्रवेश से मना कर दिया। अष्टावक्र ने अपनी विद्वत्ता और तर्क से द्वारपाल को यह समझाया कि ज्ञान की कोई उम्र नहीं होती और उन्होंने अंततः दरबार में प्रवेश पाया।

दरबार में पंडितों का उपहास और अष्टावक्र का प्रत्युत्तर

दरबार में जब अष्टावक्र प्रवेश करते हैं, तो उनके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर सभी पंडित उनका मज़ाक उड़ाने लगते हैं। परंतु अष्टावक्र ने बिना विचलित हुए कहा, “तुम लोग केवल चमड़े को देखते हो, आत्मा को नहीं। शरीर के विकृत होने से आत्मा विकृत नहीं होती।” यह बात सुनकर सभी विद्वान हतप्रभ हो गए और सभा में सन्नाटा छा गया। उनके इस ज्ञानपूर्ण उत्तर ने सभी का दिल जीत लिया।

वंदिन से शास्त्रार्थ

राजा जनक ने अष्टावक्र के ज्ञान को पहचान लिया और उन्हें राज्य के प्रधान पंडित वंदिन से शास्त्रार्थ करने की अनुमति दी। वंदिन, जो अब तक अजेय माना जाता था, अष्टावक्र के सामने पराजित हुआ। अष्टावक्र ने न केवल अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया, बल्कि वंदिन को उसी प्रकार पानी में डुबोने का आदेश भी दिया, जैसा उसने उनके पिता के साथ किया था।

परंतु वंदिन ने मरने से पहले अष्टावक्र को वरदान दिया कि उनके पिता कहोड़ और अन्य ब्राह्मण, जिन्हें उसने पानी में डुबोया था, वे सभी जीवित हो जाएंगे। इसके बाद, अष्टावक्र के पिता कहोड़ और अन्य ब्राह्मण जल से बाहर आ गए और जनक ने उन्हें आदरपूर्वक विदा किया।

अष्टावक्र का शारीरिक रूपांतरण

अष्टावक्र के जीवन का एक और महत्वपूर्ण पहलू उनका शारीरिक रूपांतरण था। जब वे अपने पिता कहोड़ और मामा श्वेतकेतु के साथ अपने आश्रम लौटे, तो उन्होंने समंगा नदी में स्नान किया। जैसे ही अष्टावक्र ने स्नान किया, उनका टेढ़ापन दूर हो गया और वे एक सुन्दर, सुडौल युवक के रूप में जल से बाहर निकले। यह घटना उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

राजा जनक और अष्टावक्र संवाद

राजा जनक अष्टावक्र की ज्ञानवत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपने महल में आमंत्रित किया और अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए अनुरोध किया। अष्टावक्र ने जनक को अद्वैत वेदांत के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान प्रदान किया। उनके बीच हुए संवाद से ही अष्टावक्र गीता का जन्म हुआ। यह ग्रंथ भारतीय अध्यात्मिक साहित्य का एक अमूल्य रत्न है, जिसमें आत्मज्ञान, मुक्ति और वैराग्य के विषयों पर गहराई से चर्चा की गई है।

अष्टावक्र गीता: एक अनुपम शास्त्र

अष्टावक्र गीता, जिसे अष्टावक्र संहिता के नाम से भी जाना जाता है, 298 श्लोकों का एक संकलन है, जिसमें 82 श्लोक जनक द्वारा और शेष 216 श्लोक अष्टावक्र के मुख से कहे गए हैं। यह ग्रंथ व्यक्ति के आत्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग की ओर एक अद्वितीय मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसमें तीन प्रमुख प्रश्नों पर चर्चा की गई है:

  1. ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?
  2. मुक्ति कैसे संभव है?
  3. वैराग्य कैसे प्राप्त होगा?

अष्टावक्र ने इन प्रश्नों के उत्तर में अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को सरल और सटीक रूप से समझाया है। उनका कहना था कि आत्मज्ञान के माध्यम से ही मुक्ति संभव है और संसार की सभी वस्तुओं से वैराग्य प्राप्त करके व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है।

अष्टावक्र गीता की विशेषताएँ

अष्टावक्र गीता का प्रमुख सिद्धांत अद्वैत वेदांत पर आधारित है, जिसका मुख्य उद्देश्य आत्मा को सभी बंधनों से मुक्त कराना है। इसमें अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मा स्वतंत्र और अद्वितीय है, और यह संसार के सभी बंधनों से परे है। व्यक्ति को अपने अंदर की शुद्ध आत्मा को पहचानना चाहिए, क्योंकि सच्चा ज्ञान वही है जो आत्मा को समझने से प्राप्त होता है।

अष्टावक्र गीता की प्रमुख शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:

  • आत्मा अजर-अमर है: यह न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। आत्मा शाश्वत है और वह किसी भी प्रकार के बंधनों में नहीं बंधती।
  • माया का त्याग: अष्टावक्र ने माया और संसार के मोह-माया से दूर रहने का उपदेश दिया। उनका कहना था कि जब तक व्यक्ति माया के बंधनों में बंधा रहेगा, वह सच्चे ज्ञान से दूर रहेगा।
  • वैराग्य का महत्व: अष्टावक्र ने वैराग्य को मुक्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन माना है। उन्होंने बताया कि संसार की सभी इच्छाएँ और वस्त्रणाएं व्यक्ति को अपने असली स्वरूप से भटकाती हैं। वैराग्य ही व्यक्ति को सही दिशा दिखाता है।
  • स्वतंत्रता और मुक्ति: अष्टावक्र के अनुसार, व्यक्ति पहले से ही स्वतंत्र है, केवल अज्ञानता के कारण वह बंधनों में फंसा हुआ है। मुक्ति की प्राप्ति तब होती है जब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है और माया के बंधनों से मुक्त होता है।

अष्टावक्र का समाज और दर्शन पर प्रभाव

अष्टावक्र का जीवन और उनका ज्ञान भारतीय दर्शन और समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ता है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि शारीरिक विकृति या कठिनाइयाँ व्यक्ति के आत्मज्ञान या उसकी क्षमता को कम नहीं कर सकतीं। उनके जीवन से हमें यह सीखने को मिलता है कि ज्ञान की खोज और आत्मा की शुद्धता व्यक्ति को संसार के सभी बंधनों से मुक्त कर सकती है।

अष्टावक्र गीता का प्रभाव भारतीय संत परम्परा पर भी गहरा रहा है। संत कबीर, रविदास और अन्य भक्ति संतों ने भी अष्टावक्र की शिक्षाओं से प्रेरणा ली। उनकी शिक्षाएँ न केवल भारत में, बल्कि विश्व भर में आत्मज्ञान और मुक्ति की दिशा में मार्गदर्शन करती रही हैं।

निष्कर्ष

अष्टावक्र का जीवन और उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी प्राचीन काल में थीं। उनके दर्शन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आत्मज्ञान ही सबसे बड़ी संपत्ति है, और जीवन का उद्देश्य माया के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानना है। उनकी गीता और उनका जीवन हमें जीवन की गहराइयों में झाँकने और सत्य के अनुभव की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती हैं।

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